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रामधारी सिंह दिनकर के पुण्यतिथि

 रामधारी सिंह दिनकर के पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है कविता श"के सुरज" के माध्यम से


शब्दों का सुरज

है धरा में छिपी हुयी
सुरज की वो किरणे थी
नभ नाभी तक जिनकी
आने वाली रश्मे थी ।
है सुनहली आखो में
उसका तो बस रंग यही
ना छिपी रही है वो
बादल के आ जाने से ।
नभ चेतना बह चली वही से
जिसका बस अपमान हुआ
सुरज के आ जाने से
दिनकर का पथ ना आसान हुआ ।
है भभकती ज्वालाओ से
आजादी का आविर्भाव हुआ
उसी धरा में छिपा हुआ
दिनकर भी साक्षात हुआ ।
था समय वो आग सा
जलती सारी जनता थी
किसी में भुख और
किसी में प्यास भारी थी
रंग कई ये वेश कई थे
लोगों में रोष बड़े थे
नही चेतना उसमें डालो कि
क्रुरता का अंत हुआ था
हिन्दी के लिये भारत का
एक सपूत दिनकर खड़ा हुआ था ।
राज्यसभा के कोने से
जीवन के एक उजाले से
जिसने हुंकार भरी कविता
वो अपमान भरी काले
धन पर रोष किया
दिनकर ने राजनिति पर प्रहार किया ।
है जोड़ता संवादो में कि
जनता का यो राम बना
है जलती ज्वालाओ की
शब्दो का वो तिर यहा ।
समाजवाद के भूख में
नेताओं से वसीभुत पथ
लोकत्रेत के खातिर अब
जिसने शब्दो का हुंकार भरा
भरे रण में जिसने
दल पर धनुष तान दिया
देश के खातीर जिसने
मुखिया को ललकारा दिया ।
हर घड़ी हर वक्त की
राहे टटोलता है
अपने बातो से वो
सुरज को भी छेढ़ता है ।
है चेतना ऐसी उसमें
राहो का अभिलाषी वो
जनत्रत के खातीर उसने
अपना सुख त्याग दिया
जीवन की कठिनाई में
खुद को गंगा में पार किया ।
काल के संख से फूकता
क्या तंज था बहती हुयी
नदीयों का गुरुर तोड़ता था ।
वो शानी था अभिमानी था
शब्दो का विज्ञानी था
मरी चेतनाओ को
सुरज जैसा चमकाया था ।
था अलौकिक उसका पथ
जिस पर उसका नाम हुआ
रश्मी रथ से ऊर्वशी का
सफर ना आसान रहा ।
मिली सफर में बड़ी ख्यातीया
पुरस्कारो की वो अभिलाषा थी
शानपीठ से शुसोभित हुआ
दिनकर एक किरण था ।
जादुगर थे शब्दो के
जिन पर भावो को विस्वास हुआ
उन चमकिली किरणो से भी
शब्दो के सुरज का
पथ ना आसान हुआ ।
माँग कर मौत को जिसने
मन को शांत किया
रश्मीरथ से भी पथ पान किया
झूझता वो पहरो से
चरित्र का धनवान बड़ा
मौत पास आ गयी कि
उसमें कहा अभिमान था ।
व्याघ्र ने पछाड़ दिया
तिरुपति की छावों में
हिन्दी का एक अभिमान गया
दक्षिण की हवाओं में ।

-वेद प्रकाश सिंह


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